#आज के दैनिक जागरण
*दिवालिया होते डिस्कॉम और मुनाफा कमाती प्राइवेट कम्पनियां*
(डॉ अजय खेमरिया)
उप्र विधुत निगम बर्ष 2000 में 77 करोड़ के घाटे में था आज यह आंकड़ा 83 हजार करोड़ पहुँच गया है।बिहार में 67 हजार करोड़ है.प्रदेश सरकार को उल्टा उधार देने वाले मप्र में ये कम्पनियां 52 हजार करोड़ के घाटे में है।देश भर के सभी डिस्कॉम के घाटे को जोड़ दें तो यह करीब 10 लाख करोड़ के आसपास है।विधुत अधिनियम 2003 में संशोधन के मौजूदा प्रस्ताव का देश भर में विरोध हो रहा है। सभी राज्यों के बिजली इंजीनियर्स ने एक जुट होकर सरकार से न केवल इन संशोधन को वापिस लेने बल्कि सभी विधुत कम्पनियों को भंग कर पुरानी निगम/बोर्ड व्यवस्था बहाल करने की मांग भी दोहराई है।इस विरोध का बुनियादी आधार 2003 कानून की व्यवहारिक विफलता ही है। जिसके तहत तत्कालीन बिजली बोर्डों को विघटित करके कम्पनियों में बदला गया।ताकि उत्पादन, पारेषण,और वितरण को व्यावसायिक और उपभोक्ता अधिकारों के मानकों पर व्यवस्थित किया जाए।लेकिन आज ये कम्पनीकरण प्रयोग पूरी तरह से विफल हो गया है।इसके मूल में अफ़सरशाही को देखा जाता है जिसने कम्पनीकरण के नाम पर प्रशासनिक खर्चे तो बेतहाशा बढ़ा लिए लेकिन जिस टेक्नोक्रेटिक,और प्रोफेशनल एप्रोच की आवश्यकता थी उसे अमल में नही लाया गया।पहले राज्यों में रेलवे की तर्ज पर एक निगम/बोर्ड होता था।अब वितरण,पारेषण ,उत्पादन,मैनेजमेंट, ट्रेडिंग होल्डिंग कम्पनियां बनाकर सभी की कमान आईएएस अफसरों को दे दी।जिन्होंने सरकारी महकमों की तरह ही इन कम्पनियों को चलाया है। कम्पनीकरण यह कहकर किया गया कि उपभोक्ताओं को बेहतर विकल्प, सस्ती और निर्बाध सुविधाएं मिलेंगी।अनुभव इसके उलट कहानी कहते है एक तो देश के सभी सरकारी डिस्कॉम दिवाले की कगार पर है और दूसरी तरफ निजी बिजली कम्पनियां करोडों का मुनाफा कमा रही है।
भारतीय विधुत अधिनियम1910 औऱ इंडियन इलेक्ट्रिक एक्ट 1948 बिजली क्षेत्र में किसी भी निजी भागीदारी को निषिद्ध करता था।एक लंबे कारपोरेट दबाब के बाद देश मे 2003 का विधुत एक्ट पारित कर निजीकरण की नींव रखी गई। केंद्रीय मदद,विश्वबैंक, जापान बैंक,एडीबी,जैसे वितीय संस्थानों से ऋण लेकर बुनियादी ढांचा सुदृढ़ीकरण पर हजारों करोड़ खर्च किये गए।एपीडीआरपी,आरईसी, सिस्टम स्ट्रेंथनिंग, जेबीआईसी,उदय,राजीव गांधी विधुतीकरण,दीनदयाल ग्राम ज्योति, एडीबी,आरएपीडीआरपी,फीडर सेपरेशन, उजाला जैसी भारी भरकम बजट वाली योजनाओं के जरिये करीब 8 लाख करोड़ रुपये पिछले 15 साल में खर्च किये जा चुके है। सिस्टम सुधार के नाम कम्पनियों को हजारों करोड़ के टेंडर जारी किये।जो नेटवर्क सरकारी निगमों ने 50 साल में खड़ा किया, उससे दोगुनी 33 केवी,11 केवी,एचटी,लाइनें,पावर और वितरण ट्रांसफारमर गांव,कस्बों में खड़े कर दिए गए।शहरी इलाकों में हजारों करोड़ के टेंडर पर रिनोवेशन, अपग्रेडेशन केबलिंग के काम हुए।ये सभी टेंडर ग्लोबल और सेंट्रलाइज्ड प्रक्रिया अपनाकर बुलाये गए जिनके सर्वाधिकार आईएएस सीएमडीयों ने अपने पास रखे। फैक्ट ध्यान देने वाला यह भी है कि जितनी क्षमता बिजली की केबिल,ट्रांसफार्मर, ओसीबी,कंडक्टर,पोल बनाने की समेकित भारत मे नही थी उससे अधिक की मांग वाले टेंडर कम्पनियां हासिल कर गई। भुगतान भी बगैर इनवॉइस के धड़ल्ले से होते रहे। दूसरी विसंगति यह रही की इतना बड़ा नेटवर्क एक साथ खड़ा किया जाता रहा और इसके मेंटेनेंस के लिए कर्मचारियों की भर्ती नही हुई।नतीजतन हजारों किलोमीटर लाइने बगैर ऊर्जीकर्त चोरी हो गईं। टेंडरभी बड़ी कम्पनियों को उनकी सुविधा के अनुरूप बनाईं गईं शर्तों पर दिए गए।ठीक टेलीकॉम लाइसेंस घोटाले की तरह।
।मसलन फ्रीज, साबुन,बनाने वाली गोदरेज और ऐसी ही तमाम कम्पनियों ने मप्र,बिहार,महाराष्ट्र, गुजरात में हजारों करोड़ के ठेके हासिल किए। निजी कन्सल्टिंग फर्मों की निगरानी में कम्पनियां फायदे के काम कर भाग गईं। टेंडर पांच साल में लाइन लॉस यानी विधुत चोरी को 15 फीसदी पर लाने की शर्त पर मिले थे लेकिन एक भी कम्पनी इस पर खरी नही उतरी।किसी डिस्कॉम का लाइन लॉस आज 45 फीसदी से कम नही है।जाहिर है करोडों के यह काम आईएएस अफसरों एवं बड़ी कम्पनियों के गठजोड़ को भेंट चढ़ गया औऱ डिस्कॉम कर्ज़ में दबते गए।
दूसरा पक्ष प्रशासनिक खर्चे का भी है।निगमों में कार्मिक,वाणिज्य,उत्पादन सदस्य पूरे राज्य के काम देखते थे लेकिन कम्पनी में सर्किल ऑफिस में एच आर , आई टी मैनेजर, सीए, अकाउंट ऑफिसर,के अलावा बड़ी संख्या में नॉन टेक्नीकल लोगों की भर्तियां कर ली गई। हर वितरण केंद्र पर लग्जरी गाड़ियां किराए पर उठा लीं गई।बिलिंग सॉफ्टवेयर के नाम पर करोड़ों के घोटाले हुए।कॉलसेंटर,कलेक्शन सेंटर, फ्यूज कॉल रिस्पॉन्स जैसे कामों पर भी बेतहाशा धन खर्च हुआ।ये सब कर्ज के बोझ में ही हुआ ताकि निजी कम्पनियों के लिये वितरण व्यवस्था बढ़िया बनाकर दी जा सके।महंगी बिजली खरीदी के अनुबंध भी निजी कम्पनियों से ऐसी शर्तों पर हुए है कि डिस्कॉम को बगैर बिजली लिए करोड़ों के भुगतान करने पड़ रहे है।
अब सरकार फिर विधुत अधिनियम 2003 में संशोधन करने जा रही है जो मूलतःनिजी कम्पनियों के हितों की ओर झुका है।बिजली मंत्री आरके सिंह ने लोकसभा मे इसे उपभोक्ताओं के हितों के अनुकूल बताया है लेकिन बुनियादी रूप से यह गांव,गरीब,और किसानों के विरुद्ध है । इसके तहत निजी कम्पनियां मुनाफे वाले बड़े उपभोक्ताओं को बिजली देकर टोरंट पावर आगरा की तरह पैसा बनायेंगी और सरकारी कम्पनी ग्रामीण क्षेत्रों, किसानों,गरीबों,और आम उपभोक्ताओं को बिजली देगी जिससे वह हमेशा घाटे में ही चलेंगी।क्रॉस सब्सिडी खत्म होने से उपभोक्ताओं को महंगी बिजली लेनी पड़ेगी। नोयडा,आगरा, दिल्ली की कम्पनियों के मुनाफे इस आशंका को प्रमाणित करते है।
बेहतर होगा सरकार बिजली एक्ट में प्रतिगामी संशोधन वापिस ले और देश भर में बिजली बोर्डों की व्यवस्था को बहाल करें।सरकारी बिजली ग्रहों की क्षमता बृद्धि के लिये बेल आउट पैकेज देकर अफ़सरशाही के दखल को खत्म किया जाए।तभी इस सेक्टर को ध्वस्त होने से बचाया जा सकता है।
*दिवालिया होते डिस्कॉम और मुनाफा कमाती प्राइवेट कम्पनियां*
(डॉ अजय खेमरिया)
उप्र विधुत निगम बर्ष 2000 में 77 करोड़ के घाटे में था आज यह आंकड़ा 83 हजार करोड़ पहुँच गया है।बिहार में 67 हजार करोड़ है.प्रदेश सरकार को उल्टा उधार देने वाले मप्र में ये कम्पनियां 52 हजार करोड़ के घाटे में है।देश भर के सभी डिस्कॉम के घाटे को जोड़ दें तो यह करीब 10 लाख करोड़ के आसपास है।विधुत अधिनियम 2003 में संशोधन के मौजूदा प्रस्ताव का देश भर में विरोध हो रहा है। सभी राज्यों के बिजली इंजीनियर्स ने एक जुट होकर सरकार से न केवल इन संशोधन को वापिस लेने बल्कि सभी विधुत कम्पनियों को भंग कर पुरानी निगम/बोर्ड व्यवस्था बहाल करने की मांग भी दोहराई है।इस विरोध का बुनियादी आधार 2003 कानून की व्यवहारिक विफलता ही है। जिसके तहत तत्कालीन बिजली बोर्डों को विघटित करके कम्पनियों में बदला गया।ताकि उत्पादन, पारेषण,और वितरण को व्यावसायिक और उपभोक्ता अधिकारों के मानकों पर व्यवस्थित किया जाए।लेकिन आज ये कम्पनीकरण प्रयोग पूरी तरह से विफल हो गया है।इसके मूल में अफ़सरशाही को देखा जाता है जिसने कम्पनीकरण के नाम पर प्रशासनिक खर्चे तो बेतहाशा बढ़ा लिए लेकिन जिस टेक्नोक्रेटिक,और प्रोफेशनल एप्रोच की आवश्यकता थी उसे अमल में नही लाया गया।पहले राज्यों में रेलवे की तर्ज पर एक निगम/बोर्ड होता था।अब वितरण,पारेषण ,उत्पादन,मैनेजमेंट, ट्रेडिंग होल्डिंग कम्पनियां बनाकर सभी की कमान आईएएस अफसरों को दे दी।जिन्होंने सरकारी महकमों की तरह ही इन कम्पनियों को चलाया है। कम्पनीकरण यह कहकर किया गया कि उपभोक्ताओं को बेहतर विकल्प, सस्ती और निर्बाध सुविधाएं मिलेंगी।अनुभव इसके उलट कहानी कहते है एक तो देश के सभी सरकारी डिस्कॉम दिवाले की कगार पर है और दूसरी तरफ निजी बिजली कम्पनियां करोडों का मुनाफा कमा रही है।
भारतीय विधुत अधिनियम1910 औऱ इंडियन इलेक्ट्रिक एक्ट 1948 बिजली क्षेत्र में किसी भी निजी भागीदारी को निषिद्ध करता था।एक लंबे कारपोरेट दबाब के बाद देश मे 2003 का विधुत एक्ट पारित कर निजीकरण की नींव रखी गई। केंद्रीय मदद,विश्वबैंक, जापान बैंक,एडीबी,जैसे वितीय संस्थानों से ऋण लेकर बुनियादी ढांचा सुदृढ़ीकरण पर हजारों करोड़ खर्च किये गए।एपीडीआरपी,आरईसी, सिस्टम स्ट्रेंथनिंग, जेबीआईसी,उदय,राजीव गांधी विधुतीकरण,दीनदयाल ग्राम ज्योति, एडीबी,आरएपीडीआरपी,फीडर सेपरेशन, उजाला जैसी भारी भरकम बजट वाली योजनाओं के जरिये करीब 8 लाख करोड़ रुपये पिछले 15 साल में खर्च किये जा चुके है। सिस्टम सुधार के नाम कम्पनियों को हजारों करोड़ के टेंडर जारी किये।जो नेटवर्क सरकारी निगमों ने 50 साल में खड़ा किया, उससे दोगुनी 33 केवी,11 केवी,एचटी,लाइनें,पावर और वितरण ट्रांसफारमर गांव,कस्बों में खड़े कर दिए गए।शहरी इलाकों में हजारों करोड़ के टेंडर पर रिनोवेशन, अपग्रेडेशन केबलिंग के काम हुए।ये सभी टेंडर ग्लोबल और सेंट्रलाइज्ड प्रक्रिया अपनाकर बुलाये गए जिनके सर्वाधिकार आईएएस सीएमडीयों ने अपने पास रखे। फैक्ट ध्यान देने वाला यह भी है कि जितनी क्षमता बिजली की केबिल,ट्रांसफार्मर, ओसीबी,कंडक्टर,पोल बनाने की समेकित भारत मे नही थी उससे अधिक की मांग वाले टेंडर कम्पनियां हासिल कर गई। भुगतान भी बगैर इनवॉइस के धड़ल्ले से होते रहे। दूसरी विसंगति यह रही की इतना बड़ा नेटवर्क एक साथ खड़ा किया जाता रहा और इसके मेंटेनेंस के लिए कर्मचारियों की भर्ती नही हुई।नतीजतन हजारों किलोमीटर लाइने बगैर ऊर्जीकर्त चोरी हो गईं। टेंडरभी बड़ी कम्पनियों को उनकी सुविधा के अनुरूप बनाईं गईं शर्तों पर दिए गए।ठीक टेलीकॉम लाइसेंस घोटाले की तरह।
।मसलन फ्रीज, साबुन,बनाने वाली गोदरेज और ऐसी ही तमाम कम्पनियों ने मप्र,बिहार,महाराष्ट्र, गुजरात में हजारों करोड़ के ठेके हासिल किए। निजी कन्सल्टिंग फर्मों की निगरानी में कम्पनियां फायदे के काम कर भाग गईं। टेंडर पांच साल में लाइन लॉस यानी विधुत चोरी को 15 फीसदी पर लाने की शर्त पर मिले थे लेकिन एक भी कम्पनी इस पर खरी नही उतरी।किसी डिस्कॉम का लाइन लॉस आज 45 फीसदी से कम नही है।जाहिर है करोडों के यह काम आईएएस अफसरों एवं बड़ी कम्पनियों के गठजोड़ को भेंट चढ़ गया औऱ डिस्कॉम कर्ज़ में दबते गए।
दूसरा पक्ष प्रशासनिक खर्चे का भी है।निगमों में कार्मिक,वाणिज्य,उत्पादन सदस्य पूरे राज्य के काम देखते थे लेकिन कम्पनी में सर्किल ऑफिस में एच आर , आई टी मैनेजर, सीए, अकाउंट ऑफिसर,के अलावा बड़ी संख्या में नॉन टेक्नीकल लोगों की भर्तियां कर ली गई। हर वितरण केंद्र पर लग्जरी गाड़ियां किराए पर उठा लीं गई।बिलिंग सॉफ्टवेयर के नाम पर करोड़ों के घोटाले हुए।कॉलसेंटर,कलेक्शन सेंटर, फ्यूज कॉल रिस्पॉन्स जैसे कामों पर भी बेतहाशा धन खर्च हुआ।ये सब कर्ज के बोझ में ही हुआ ताकि निजी कम्पनियों के लिये वितरण व्यवस्था बढ़िया बनाकर दी जा सके।महंगी बिजली खरीदी के अनुबंध भी निजी कम्पनियों से ऐसी शर्तों पर हुए है कि डिस्कॉम को बगैर बिजली लिए करोड़ों के भुगतान करने पड़ रहे है।
अब सरकार फिर विधुत अधिनियम 2003 में संशोधन करने जा रही है जो मूलतःनिजी कम्पनियों के हितों की ओर झुका है।बिजली मंत्री आरके सिंह ने लोकसभा मे इसे उपभोक्ताओं के हितों के अनुकूल बताया है लेकिन बुनियादी रूप से यह गांव,गरीब,और किसानों के विरुद्ध है । इसके तहत निजी कम्पनियां मुनाफे वाले बड़े उपभोक्ताओं को बिजली देकर टोरंट पावर आगरा की तरह पैसा बनायेंगी और सरकारी कम्पनी ग्रामीण क्षेत्रों, किसानों,गरीबों,और आम उपभोक्ताओं को बिजली देगी जिससे वह हमेशा घाटे में ही चलेंगी।क्रॉस सब्सिडी खत्म होने से उपभोक्ताओं को महंगी बिजली लेनी पड़ेगी। नोयडा,आगरा, दिल्ली की कम्पनियों के मुनाफे इस आशंका को प्रमाणित करते है।
बेहतर होगा सरकार बिजली एक्ट में प्रतिगामी संशोधन वापिस ले और देश भर में बिजली बोर्डों की व्यवस्था को बहाल करें।सरकारी बिजली ग्रहों की क्षमता बृद्धि के लिये बेल आउट पैकेज देकर अफ़सरशाही के दखल को खत्म किया जाए।तभी इस सेक्टर को ध्वस्त होने से बचाया जा सकता है।
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